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आज भी रोंगटे खड़े कर देती है सत्यवादी भारतीय राजा की कहानी

Raja Harishchandra: भारत में अनेक महान राजा हुए हैं। भारत के महान राजाओं में सबसे बड़ा नाम राजा हरिश्चन्द्र का है। राजा हरिश्चन्द्र ने सच यानि सत्य के लिए जो किया उसका दूसरा उदाहरण दुनिया में कहीं भी नहीं मिलता। राजा हरिश्चन्द्र की कहानी अनेकों बार कही और सुनी जा चुकी है। राजा हरिश्चन्द्र के ऊपर अनेक फिल्म बनी, नाटक बने तथा उपन्यास लिखे गए हैं। आज भी राजा हरिश्चन्द्र की कहानी से रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

सत्यवादी होने की सबसे बड़ी मिसाल

सत्य की चर्चा जब भी की जाएगी, महाराजा हरिश्चन्द्र का नाम जरूर लिया जाएगा। राजा हरिश्चन्द्र इक्ष्वाकु वंश के प्रसिद्ध राजा थे। इनकी पत्नी का नाम तारामती तथा पुत्र का नाम रोहिताश्व था। तारामती को कुछ लोग शैव्या भी कहते थे। महाराजा हरिश्चन्द्र  की सत्यवादिता और त्याग की सर्वत्र चर्चा थी। महर्षि विश्वामित्र ने हरिश्चंद्र के सत्य की परीक्षा लेने का निश्चय किया।

रात्रि में महाराजा हरिश्चंद्र ने स्वप्न देखा कि कोई तेजस्वी ब्राह्मण राजभवन में आया है। उन्हें बड़े आदर से बैठाया तथा उनका यथेष्ट आदर-सत्कार किया। हरिश्चंद्र ने स्वप्न में ही इस ब्राह्मण को अपन राज्य दान में दे दिया। जगने पर महाराज इस स्वप्न को भूल गए। दूसरे दिन महर्षि विश्वामित्र इनके दरवार में आए। उन्होंने महाराज को स्वप्न में दिए गए दान की याद दिलाई। ध्यान करने पर महाराज को स्वप्न की सारी बातें याद आ गई और उन्होंने इस बात को स्वीकार कर लिया।

विश्वामित्र ने राजा से दक्षिणा मांगी। राजा ने मंत्री से दक्षिणा देने हेतु राजकोष से मुद्रा लाने को कहा। विश्वामित्र क्रोधित हो गए। उन्होंने कहा- जब सारा राज्य तुमने दान में दे दिया तब राजकोष तुम्हारा कैसे रहा? यह तो हमारा हो गया। उसमें से दक्षिण देने का अधिकार तुम्हें कहाँ रहा ?” हरिश्चंद्र सोचने लगे। विश्वामित्र की बात में सच्चाई थी किंतु उन्हें दक्षिणा देना भी आवश्यक था। वे यह सोच ही रहे थे कि विश्वामित्र बोल पड़े- “तुम हमारा समय व्यर्थ ही नष्ट कर रहे हो। तुम्हें यदि दक्षिणा नहीं देनी है तो साफ-साफ कह दो, मैं दक्षिणा नहीं दे सकता। दान देकर दक्षिणा देने में आनाकारी करते हो। मैं तुम्हें शाप दे दूँगा।”

हरिश्चंद्र बोले “राजमहल, कोष सब आपका हो गया है। आप मुझे थोड़ा समय दीजिए ताकि आपकी दक्षिणा का प्रबंध कर सकूँ।”
काशी में राजा हरिश्चंद्र ने कई स्थलों पर स्वयं को बेचने का प्रयत्न किया पर सफलता न मिली। सायंकाल तक राजा को श्मशान घाट के मालिक ने खरीदा। हरिश्चंद्र अपनी पत्नी तथा पुत्र से अलग हो गए। तारामती को एक साहूकार के यहाँ घरेलू काम-काज करने को मिला और हरिश्चंद्र को मरघट है रखवाली का काम।

तारामती जो पहले महारानी थी, अब बरतन मौजने और चौका लगाने का काम करने लगी। स्वर्ण सिंहासन पर बैठने वाले राजा हरिश्चंद्र श्मशान पर पहरा देने लगे। जो लोग शव जलाने मरघट पर आते थे, उनसे कर वसूलने का कार्य हरिश्चंद्र को दिया गया। अपने मालिक की डॉट-फटकार सहते हुए भी नियम एवं ईमानदारी से अपना कार्य करते रहे। उन्होंने अपने कार्य में कभी भी कोई त्रुटि नहीं होने दी।
इधर तारामती के साथ एक हृदय विदारक घटना घटी। उनके साथ पुत्र रोहिताश्व भी रहता था। एक दिन खेलते-खेलते उसे साँप ने डँस लिया। उसकी मृत्यु हो गई। तारामती पर यह दु:ख वज्र की भाँति आ गिरा। उनके पास कफन तक के लिए पैसे नहीं थे। वह रोती-बिलखती किसी प्रकार अपने पुत्र के शव को गोद में उठा कर अंतिम संस्कार के लिए श्मशान ले गई।

रात का समय था। सारा श्मशान सन्नाटे में डूबा था। एक दो शव जल रहे थे। इसी समय पुत्र का शव लिए तारामती श्मशान पर पहुँची। हरिश्चंद्र ने तारामती से श्मशान का कर माँगा। उनके अनुनय-विनय करने पर तथा उनकी बातों से वे पत्नी तथा अपने पुत्र को पहचान गए। किंतु उन्होंने नियमों में ढील नहीं दी। उन्होंने अपने मालिक की आज्ञा के विरुद्ध कुछ भी नहीं किया। उन्होंने तारामती से कहा- “श्मशान का कर तो तुम्हें देना ही होगा। उससे कोई मुक्त नहीं हो सकता। यदि मैं किसी को छोड़ दूँ तो यह अपने मालिक के प्रति विश्वासघात होगा। हरिश्चंद्र ने तारामती से कहा, – “यदि तुम्हारे पास और कुछ नहीं है तो अपनी साड़ी का आधा भाग फाड़ कर दे दो, मैं उसे ही कर के रूप  में ले लूँगा।

तारामती विवश थी। उसने जैसे ही साड़ी को फाडऩा आरंभ किया, आकाश में गंभीर गर्जना हुई। विश्वामित्र प्रकट हो गए। उन्होंने रोहिताश्व को भी जीवित कर दिया। विश्वामित्र ने हरिश्चंद्र को आशीर्वाद देते हुए कहा- तुम्हारी परीक्षा हो रही थी कि तुम किस सीमा तक सत्य एवं धर्म का पालन कर सकते हो। यह कहते हुए विश्वामित्र ने उन्हें उनका पूरा राज्य जैसे का तैसा लौटा दिया। महाराज हरिश्चंद्र ने स्वयं को बेचकर भी सत्यव्रत का पालन किया। यह सत्य एवं धर्म एक बेमिसाल उदाहरण है। आज भी महाराजा हरिश्चंद्र का नाम श्रद्धा और आदर के साथ लिया जाता है।

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