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ज्ञान की बात : मानवता की भलाई के लिए सब कुछ कर दिया न्यौछावर

Maharshi Dadhichi: ज्ञान वह नहीं है जिसे हम सब किताबों में पढ़ते हैं। असल ज्ञान हमें अपने माता-पिता से मिलता है। माता-पिता को वह ज्ञान उनके माता-पिता से मिला था। इसका अर्थ हुआ कि हमारे पूर्वजों से मिलने वाला ज्ञान ही असली ज्ञान होता है। हम भारत के महान पूर्वजों की जानकारी आपको दे रहे हैं। ज्ञान तथा परोपकार के मामले में हमारे पूर्वजों का कोई मुकाबला नहीं है।

ज्ञान और परोपकार की बड़ी मिसाल हैं महर्षि दधीचि (Maharshi Dadhichi)

संसार में कुछ व्यक्तित्व ऐसे भी होते हैं जो परोपकार हेतु अपने हितों का बलिदान कर देते हैं। हमारे देश में ऐसे अनेक पुरुष और नारियाँ हुई हैं, जिन्होंने दूसरों की सहायता और भलाई के लिए स्वयं कष्ट सहे हैं।

ऐसे ही महान परोपकारी पुरुषों में महर्षि दधीचि (Maharshi Dadhichi) का नाम आदर के साथ लिया जाता है। महर्षि दधीचि नैमिषारण्य (सीतापुर-उ0प्र0) के घने जंगलों के मध्य आश्रम बना कर रहते थे। उन्हीं दिनों देवताओं और असुरों में लड़ाई छिड़ गई। देवताओं के हार जाने का अर्थ था असुरों का राज्य स्थापित हो जाना। ये पूरी शक्ति से लड़ रहे थे। देवताओं ने असुरों को हराने के अनेक प्रयत्न किए किंतु सफल नहीं हुए।

हताश देवतागण अपने राजा इंद्र के पास गए और बोले राजन ‘हमें युद्ध में सफलता के आसार नहीं दिखाई पड़ते। क्यों न इस विषय में ब्रह्मा जी से कोई उपाय पूछें?’ इंद्र देवताओं की सलाह मानकर ब्रह्मा जी के पास गए। इंद्र ने उन्हें अपनी चिंता से अवगत कराया। ब्रह्मा जी बोले हे देवराज! त्याग में इतनी शक्ति होती है कि उसके बल पर किसी भी असंभव कार्य को संभव बनाया जा सकता है लेकिन दु:ख है कि इस समय आप में से कोई भी इस मार्ग पर नहीं चल रहा है।

ब्रहमा जी की बातें सुनकर देवराज इंद्र चिंतित हो गए, वे बोले फिर क्या होगा? बह्मा जी ने बताया- नैमिषारण्य वन में एक तपस्वी तप कर रहे हैं। उनका नाम दधीचि है। उन्होंने तपस्या और साधना के बल पर अपने अंदर अपार शक्ति जुटा ली है। यदि उनकी अस्थियों से बने अस्त्रों का प्रयोग करें तो असुर निश्चित ही परास्त होंगे। इंद ने कहा- किंतु वे तो जीवित हैं। उनकी अस्थियाँ भला हमें कैसे मिल सकती हैं? ब्रह्मा जी ने कहा- “मेरे पास जो उपाय था। मैने आपको बता दिया। शेष समस्याओं का समाधान स्वयं दधीचि कर सकते हैं।

देवराज इंद्र झिझकते हुए महर्षि दधीचि के आश्रम पहुँचे। महर्षि उस समय ध्यानावस्था में थे। इंद्र उनके सामने हाथ जोडक़र याचक की मुद्रा में खड़े हो गए। ध्यान भंग होने पर उन्होंने इंद्र को बैठने के लिए कहा, फिर उनसे पूछा ‘कहिए देवराज कैसे आना हुआ? इंद्र बोले- ‘महर्षि क्षमा करें, मैंने आपके ध्यान में बाधा पहुँचाई है। महर्षि आपको ज्ञात होगा, इस समय देवताओं पर असुरों ने चढ़ाई कर दी है। वे तरह-तरह के अत्याचार कर रहे हैं। उनका सेनापति वृत्रासुर बहुत ही क्रूर और अत्याचारी है, उससे देवता हार रहे हैं। महर्षि ने कहा “मेरी भी चिंता का यही विषय है, आप ब्रह्मा जी से बात क्यों नहीं करते? इद्र ने कहा- मैं उनसे बात कर चुका हूँ। उन्होंने उपाय भी बताया है किंतु? किंतु कितु क्या? देवराज! आप रुक क्यों गए? साफ-साफ बताइए। मेरे प्राणों की भी जरूरत होगी तो भी मैं सहर्ष तैयार हूँ।” इंद्र ने कहा ‘हे महर्षि! ब्रह्मा जी ने बताया है कि आपकी अस्थियों से अस्त्र बनाया जाए तो वह वज्र के समान होगा। वृत्रासुर को मारने हेतु ऐसे ही वज्रास्त्र की आवश्यकता है।”

इद्र की बात सुनते ही महर्षि का चेहरा कांतिमय हो उठा। उन्होंने सोचा, मैं धन्य हो गया। उनका रोम-रोम पुलकित हो गया।
प्रसन्नतापूर्वक महर्षि बोले-‘देवराज आपकी इच्छा अवश्य पूरी होगी। मेरे लिए इससे ज्यादा गौरव की बात और क्या होगी? आप निश्चय ही मेरी अस्थियों से वज्र बनवाएं और असुरों का विनाश कर चारों ओर शांति स्थापित करें।’

दधीचि ने ध्यानावस्था में अपने नेत्र बंद कर लिए। उन्होंने योग बल से अपने प्राणों को शरीर से अलग कर लिया। उनका शरीर निर्जीव हो गया। देवराज इंद्र आदर से उनके मृत शरीर को प्रणाम कर अपने साथ ले आए। महर्षि की अस्थियों से वज्र बना, जिसके प्रहार से वृत्रासुर मारा गया। असुर पराजित हुए और देवताओं की जीत हुई।

महर्षि दधीचि को उनके त्याग के लिए आज भी लोग श्रद्धा से याद करते हैं। नैमिषारण्य में प्रतिवर्ष फाल्गुन माह में उनकी स्मृति में मेले का आयोजन होता है। यह मेला महर्षि के त्याग और मानव सेवा के भादों की याद दिलाता है। तो ज्ञान की और परोपकार की मिसाल अपने इस पूर्वज महर्षि दधीचि को हमेशा याद रखना।

अस्वीकरण: यह कहानी हिंदू धर्मग्रंथों और लोककथाओं पर आधारित है। पाठ में वर्णित घटनाओं की ऐतिहासिक सटीकता की पुष्टि नहीं की जा सकती।

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