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भगवान बुद्ध को खुद पर यकीन नहीं हुआ था कि मिल गया है सब कुछ

Lord Buddha: पिछली कुछ सदियों में भगवान बुद्ध से बड़ा ज्ञानी खोजना मुश्किल है। भगवान बुद्ध ने वह ज्ञान प्राप्त किया था जो दुनिया में किसी बिरले इंसान को ही मिलता है। भगवान बुद्ध के विषय में काफी कहा, पढ़ा तथा सुना गया है। क्या आपको पता है कि भगवान बुद्ध को जब ज्ञान प्राप्त हुआ तो उन्हें खुद भी कुछ देर तक यकीन नहीं हुआ कि उन्हें वह सब कुछ मिल गया है जो वें चाहते थे।

भगवान बुद्ध के जीवन का रोचक भाग

यहां आपको भगवान बुद्ध के जीवन के सबसे रोचक भाग की जानकारी दी जा रही है। आपको बता दें कि बुद्ध को जिस रात संबोधि लगी, समाधि लगी, उस रात छह वर्ष तक अथक परिश्रम करने के बाद उन्होंने सब प्रयास त्याग दिए। छह वर्ष तक उन्होंने बड़ी तपस्या की, बड़ा योग साधा। शरीर को गला डाला, हड्डी-हड्डी रह गए। कहते हैं कि पेट पीठ से लग गया, चमड़ी सूख गई, सारा जीवन रस सूख गया, सिर्फ आँखें रह गई थीं। बुद्ध ने कहा है कि मेरी आँखें ऐसी रह गई थीं, जैसे गरमी के दिनों में किसी गहरे कुएँ में थोड़ा-सा जल रह जाता है। बस, अब गया तब गया जैसी हालत थी।

उस दिन स्नान करके निरंजना नदी से वे बाहर निकल रहे थे, इतने कमजोर हो गए थे कि निकल न सके। एक वृक्ष की जड़ पकडक़र अपने को रोका, नहीं तो निरंजना उनको बहा ले जाती। उस जड़ से लटके हुए उन्हें ख्याल आया कि यह मैं क्या कर रहा हूँ, यह मैंने शरीर गला लिया, यह सब तरह का योग करके मैंने अपने को नष्ट कर लिया। मेरी हालत यह हो गई है कि यह छोटी-सी क्षीणधारा निरंजना की, यह मैं पार नहीं कर सकता और भवसागर पार करने की सोच रहा हूँ।

इससे उन्हें बड़ा बोध हुआ। बिजली काँध गई। उन्होंने सोचा यह मैंने क्या कर लिया। यह तो आत्मघात की प्रक्रिया हो गई। मैं निरंजना नदी पार करने में असमर्थ हो गया, तो यह भवसागर मैं कैसे पार करूँगा? उस साँझ उन्होंने सब छोड़ दिया। घर तो पहले ही छोड़ चुके थे, संसार पहले ही छोड़ चुके थे, राज-पाट सब पहले ही छोड़ चुके थे- उस संध्या उन्होंने मोह, योग सब छोड़ दिया। भोग पहले छूट गया था। उनके पाँच शिष्य थे, वे पाँचों भी उनको छोडक़र चले गए थे।

उन्हीं दिनों सुजाता ने मान्यता रखी थी कि पूर्णिमा की रात को एक वृक्ष पर, जहाँ वह सोचती थी कि देवता का वास है-खीर चढ़ाएगी। जब वह वहाँ पहुँची तो उसने बुद्ध को वहाँ बैठे देखा। उसने तो समझा कि वृक्ष का देवता प्रकट हुआ है। उसने खीर बुद्ध को चढ़ा दी। उसने स्वयं को सौभाग्यशाली समझा।

उसने समझा कि उसने वृक्ष के देवता को खीर चढ़ाई, लेकिन बुद्ध तो सब त्याग कर चुके थे तो उन्होंने खीर स्वीकार कर ली। कोई और दिन होता तो वे स्वीकार भी न करते। उस रात वे बड़े निश्चित सोए। बुद्ध पहली बार निश्चित सोए। न संसार बचा न मोक्ष बचा। कुछ पाना ही नहीं था तो अब चिंता कैसी थी। चिंता तो पाने से पैदा होती है। जब पाना हो तो चिंता पैदा होती है। उस रात कोई चिंता नहीं रही। मोक्ष की भी चिंता नहीं रही। वह बात ही उन्होंने छोड़ दी।

बुद्ध ने कहा, यह सब व्यर्थ है। न यहाँ कुछ पाने को है, न वहाँ कुछ पाने को है। पाने को कुछ है ही नहीं। मैं नाहक ही दौड़ में परेशान हो रहा हूँ। अब मैं चुपचाप सारी यात्राएँ छोड़ देता हूँ। वे निश्चित सोए। उस रात उन्होंने अपने जीवन को जीवन की धारा के साथ समर्पित कर दिया। धारा के साथ बहे, जैसे कोई आदमी तैरे न और नदी में हाथ-पैर छोड़ दे और नदी बहा ले चले। खूब गहरी नींद उन्हें आई। सुबह आँख खुली तो उन्होंने पाया कि वे समाधिस्थ हो गए। रात सुजाता जो मिट्टी के पात्र में खीर छोड़ गई थी, वह पात्र पड़ा था। बुद्घ ने वह पात्र उठाया। वह निरंजना में गए नदी के किनारे।

लगा कि मिल गया है ज्ञान

उन्होंने कहा- “मुझे लगता है कि समाधि फलित हो गई है, पहली बार मुझे ज्ञान हुआ है, मैं अपूर्व ज्योति से भरा हूँ, मेरे सब दु:ख मिट गए, मुझे कोई चिंता नहीं रही, मुझे कोई तनाव नहीं रहा, मैं ही नहीं रहा, मैं समाप्त हो गया हूँ, मुझे तो पक्का अनुभव हो रहा है कि मैंने पा लिया, जो पाने योग्य है मिल गया।

उन्होंने सोचा कि यह करोड़ों-करोड़ों वर्षों में मिलने वाली समाधि मुझे मिल गई, मगर मैं प्रमाण चाहता हूँ। मैं अस्तित्व से सबूत चाहता हूँ कि ऐसा मुझे लग रहा है कि मिल गई, लेकिन प्रमाण क्या है? यह जानने के लिए उन्होंने वह पात्र निरंजना में छोड़ा और कहा कि यह पात्र अगर नीचे की तरफ न जाकर नदी में ऊपर की तरफ बहने लगे, तो मैं मान लूँगा कि मुझे संबोधि हो गई।

बुद्ध ने देखा और नदी के किनारे जो मछुए मछली मार रहे थे, उन्होंने भी चौंककर देखा कि वह पात्र नदी के ऊपर की तरफ बहने लगा। तेजी से बहने लगा और जल्दी ही आँखों से ओझल हो गया। यह कहानी बड़ी प्रतीकात्मक है और बड़ी अर्थपूर्ण है। उस रात बुद्ध ने अपने को छोड़ दिया, नदी की धारा में बहने को। जब पूरा छोड़ दिया, नदी की धारा में बहने को तो दूसरे दिन नदी ने भी प्रमाण दिया कि अब तुम ऊपर की धारा में भी जा सकते हो। तुम तो क्या, तुम्हारे हाथ से छोड़ा हुआ पात्र भी ऊर्ध्वगामी हो जाएगा।

यह अध्यात्म है। यह अध्यात्म का मूल आधार है। यदि हम उतर जाएँ संसार में, पूरे भाव से, समग्र भाव से, सब छोडक़र झगड़ा नहीं, झंझट नहीं, कलह नहीं, सिर्फ होश रखते हुए जीवन में उतर जाएँ तो अचानक हम एक दिन पाएँगे कि हमने तो नीचे जाने के लिए समर्पण किया था, परंतु हम ऊपर जाने लगे। तब हमारे हाथ के छोड़े हुए पात्र भी जीवन की धारा में ऊपर की तरफ यात्रा करने लगेंगे।
बुद्ध की यह कथा अत्यंत प्रेरणास्पद है। जीवन की धारा प्रकृतिगत है और प्राकृतिक ढंग से ही हमें इसमें बहते चले जाना चाहिए। जीवन की यह धारा कर्म की धारा है। कर्म हमें बहाता है। सत्कर्म जीवन की दिशा को अपने लक्ष्य तक ले जाता है। जीवन देवता के महान उपदेशक बुद्ध का संदेश है कि हमें सत्कर्म करते हुए आगे बढऩा चाहिए।

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