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दुनिया के हर युवक को प्रेरणा देती है भारत के इस जवान की कहानी

Ekalavyaभारत में लाखों वीर योद्धा पैदा हुए हैं। आज भी भारत में वीरों की कमी नहीं है फिर भी एक वीर योद्धा का नाम आते ही हर कोई उसकी तारीफ करता है। भारत के इस अनोखे जवान का नाम था एकलव्य। हम आपको भारत के अनोखे जवान एकलव्य की विशेषताओं से परिचित करा रहे हैं।

एक अद्भुत युवक था एकलव्य

एक पेड़ पर कुछ बच्चों को सिंदूर जैसा लाल एक फल लटकता हुआ दिखाई पड़ा। सभी बालक उसे पाने के लिए चेष्टा करने लगे किंतु फल इतनी ऊँचाई पर था कि किसी प्रकार हाथ नहीं लगा। उन्हीं में से एक बालक बोला, ‘तुम लोग व्यर्थ क्यो समय बरबाद कर रहे हो. तीर तो हाथ में है क्यों नहीं गिरा लेते। बात कहते ही तीरों की बौछार होने लगी। किसी का भी तीर फल पर नहीं लगा। वह बालक खड़ा-खड़ा सारा तमाशा देखता रहा। अंत में उस बालक ने एक तीर चलाया और पका फल टप से जमीन पर गिर पड़ा। इससे टोली में उसकी धाक जम गई। बच्चों आप जानते हैं कि वह बालक कौन था? वह बालक एकलव्य था।

हस्तिनापुर के निकट वन में एक बस्ती का सरदार हिरण्यधेनु था। उनका प्रभाव अधिक था इसलिए समूह के लोग उन्हें राजा कहा करते थे। एकलव्य उन्हीं का पुत्र था। एकलव्य ने मन लगाकर अभ्यास करना आरभ किया। दिन-दिन भर जंगल में सूक्ष्म निशानों पर तीर चलाने का अभ्यास किया करता था और कुछ दिनों बाद तीर चलाने में उसकी बराबरी करने वाला हस्तिनापुर के आस-पास कोई रह नहीं गया। एकलव्य और भी अधिक निपुणता प्राप्त करना चाहता था परंतु कोई साधन दिखाई न देता था।

इसी बीच उसे पता चला कि हस्तिनापुर में राजकुमारों को बाण-विद्या की शिक्षा देने के लिए कोई बड़े आचार्य आए हैं, इनके समान बाण-विद्या में दक्ष उस समय कोई नहीं था। उसके मन में आया कि मैं भी क्यों न उन्हीं से चलकर सीखें, पर तुरंत ही उसने सोचा कि वे तो राजकुमारों के गुरु हैं, मैं निर्धन हूँ, मुझे वह सिखाएंगे कि नहीं। यह शंका उसके मन में बनी रही। फिर भी उसने भाग्य की परीक्षा लेनी चाही और वह हस्तिनापुर के लिए चल पड़ा।

हस्तिनापुर में गुरु द्रोण राजकुमारों को बाण चलाने की कला सिखाते थे। वे बाण-विद्या के आचार्य थे। इसलिये उनका नाम द्रोणाचार्य हो गया। कहा जाता है, उनके जैसा बाण चलाने वाला कोई नहीं था। दोपहर के समय कुरु तथा पाण्डु वंश के राजकुमार और अन्य प्रांतों के राजकुमार बाण चलाने का अभ्यास कर रहे थे। रंगभूमि के भीतर जाने का साहस न होने के कारण एकलव्य वहाँ पहुँचने के बाद वहीं खड़ा-खड़ा राजकुमारों का अभ्यास देखने लगा और देखने में इतना लीन हो गया कि अपने को भी भूल गया।

राजकुमारों में बाण चलाने में अर्जुन सबसे श्रेष्ठ थे। एकलव्य ने देखा कि एक खूँटे पर मिट्टी की एक चिड़िया रखी है तथा थोड़ी दूर पर दूसरे खूँटे पर तीर की एक चूड़ी लगी है। निश्चित दूरी से इस प्रकार तीर चलाना है कि वह चूड़ी के भीतर होता हुआ चिड़िया की आँख भेद दे। सभी राजकुमार द्रोण का संकेत पाकर तीर चला रहे थे, परंतु किसी का भी तीर निश्चित स्थान पर नहीं लग रहा था। इधर राजकुमार अपने  अभ्यास में इतने लीन थे कि उन्होंने एकलव्य को नहीं देखा। अंत में जब एक राजकुमार का तीर आँख छूकर पृथ्वी पर गिरा तो एकलव्य से न रहा गया। उसके मुख से निकल पड़ा, ‘वाह-वाह! केवल थोडी कुशलता की और आवश्यकता थी।”

यह सुनकर सबका ध्यान द्वार की ओर गया वहाँ उन्होंने देखा एक युवक खड़ा है। चौड़ा कंधा है, शरीर के सब अंग  सुडौल मानो किसी साँचे में ढले हैं। तीर और धनुष भी है किंतु शरीर पर केवल थोती है। द्रोणाचार्य की भी दृष्टि उघर गई। सब लोग एकटक उधर देखने लगे। आचार्य ने उसे संकेत से बुलाया। एकलव्य उनके पास गया और चरण छूकर प्रणाम करके खड़ा हो गया। द्रोणाचार्य ने ध्यान से उसे सिर से पाँव तक देखा और पूछा, ‘तुम निशाना लगा सकते हो? यह प्रश्न सुनकर उसने कहा- ‘हाँ मैं लगा सकता हूँ। और फिर कुछ पूछे बिना ठीक स्थान पर जाकर उसने तीर चलाया और तीर आँख बेधता हुआ निकल गया। सब लोग चकित हो गए। द्रोणाचार्य के पूछने पर उसने अपना नाम एकलव्य बताया।

द्रोणाचार्य इस बालक के कौशल से प्रसन्न हुए, परिचय पूछने के बाद आने का कारण पूछा। एकलव्य ने धनुर्विद्या सीखने की अभिलाषा व्यक्त की। द्रोणाचार्य ने इस विषय में अपनी विवशता व्यक्त की। एकलव्य की सारी आशाएँ क्षणभर में नष्ट हो गई। बड़ी निराशा और दु:ख भरे स्वर में उसने कहा, ‘मैं तो आपको गुरु मान चुका हूँ। इतना कहकर उनके चरण छूकर वह चल दिया।”

जंगल में एक स्थान पर उसने द्रोणाचार्य की मिट्टी की मूर्ति बनाकर स्थापित की। वह प्रात:काल और संध्या समय उसकी पूजा करता और दिन भर बाण चलाने का अभ्यास करता। बहुत दिनों के बाद जब राजकुमार बाण-विद्या में निपुण हो गए तब जंगल में शिकार खेलने गए। घोड़े पर ये लोग एक हिरण का पीछा कर रहे थे कि अचानक बाणों की वर्षा हुई और जो जहाँ था वहीं रह गया। राजकुमार घोड़ों से उतरे। उन्होंने देखा कि घोड़े के पैरों के चारों ओर बाण पृथ्वी में घुसे हैं। घोड़े चल नहीं सकते। आगे बढऩे पर जटा-धारी एक युवक मिला जो एक मूर्ति के सम्मुख बैठा था।

राजकुमारों ने पूछा, ‘श्रीमन् ! आपने धनुर्विद्या कहाँ से सीखी?” एकलव्य ने कहा, “आप मूर्ति नहीं पहचानते? यह द्रोणाचार्य जी की मूर्ति है, यही बाण-विद्या के हमारे गुरु हैं।” राजकुमारों को बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि द्रोणाचार्य ने उनसे कहा था कि तुम राजकुमारों के अतिरिक्त हम किसी को बाण विद्या नहीं सिखाते। लौटकर उन्होंने सारी कथा आचार्य को सुनाई। द्रोणाचार्य जी शिष्यों के साथ उस स्थान पर गए। एकलव्य ने द्रोणाचार्य को देखा और भक्ति तथा श्रद्धा से उनके चरणों पर गिर गया। उसने कहा- ‘आप मुझे नहीं पहचानेंगे। मैं वही एकलव्य हूँ, जिसे आपने शिक्षा देना स्वीकार नहीं किया था। आपको तो मैंने गुरु मान लिया था। यह आपकी प्रतिमा है। आपकी कृपा से मैंने आज बाण चलाने में सफलता प्राप्त कर ली है।

द्रोणाचार्य ने सोचा कि मैंने अर्जुन को आशीर्वाद दिया था कि तुम्हारे समान संसार में तीर चलाने वाला दूसरा कोई न होगा। द्रोणाचार्य ने कहा- ‘तुम्हारी कला और गुरु भक्ति देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई। अब हमें गुरु-दक्षिणा दो। एकलव्य ने कहा- ‘आज्ञा दीजिए गुरुवर! द्रोणाचार्य ने कहा- ‘मुझे कुछ नहीं चाहिए, केवल अपने दाहिने हाथ का अँगूठा दे दो।’ एकलव्य बोला- ‘यह तो आपने कुछ नहीं माँगा, लीजिए।” इतना कहकर उसने अपने दाहिने हाथ का अँगूठा काटकर उनके चरणों पर रख दिया।

सच है- ‘श्रद्धया लभते ज्ञानम्’ ‘श्रद्घा से ज्ञान की प्राप्ति होती है’।

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