गुप्त साम्राज्य के निर्माता: चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की वीर गाथा
Chandragupta Vikramaditya: महान विजेता और सकल कूटनीतिज्ञ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने अपने शौर्य से पंजाब से लेकर पूर्व बंगाल उत्तर में कश्मीर की दक्षिण सीमा से लेकर दक्षिण -पश्चिम तथा गुजरात तक अपना साम्राज्य फैलाया था इस महान शासक के शासन में समृद्धि, शांति और सुव्यवस्था स्थापित थी.
चंद्रगुप्त विक्रमादित्य बचपन से ही स्वाभिमानी थे। अपने पिता के जीवनकाल में ही उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया था। वह शक राजा द्वारा दिए गए अपमान को सह न सके। अपने वंश तथा भाभी के सम्मान के लिए उन्होंने शक राजा की हत्या कर दी।
चंद्रगुप्त विक्रमादित्य धर्मपरायण थे, किंतु वे धर्मांध और असहिष्णु शासक नहीं थे। अन्य धर्मों का भी वह आदर करते थे। उनके शासन में धर्म के आधार पर किसी के साथ कोई भेद-भाव या अत्याचार नहीं किया जाता था। दूसरे धर्मों के प्रति वह उदार एवं सहिष्णु थे। वह बौद्ध मतावलंबियों को भी भूमि और धन दान देते थे।
महान विजेता होने के साथ-साथ वे सफल कूटनीतिज्ञ भी थे। वे जानते थे कि सुदूर दक्षिण के राज्यों पर नियंत्रण नहीं रखा जा सकता, इसलिए उन्होंने दक्षिण के राजाओं से वैवाहिक संबंध स्थापित किए जिससे उनके राज्य पर दक्षिण से आक्रमण का भय समाप्त हो गया। इस तरह वे अपनी बुद्धिमानी और राज्यों की सहायता से भारत से विदेशियों को निकालने में सफल रहे।
अपनी महान विजयों के बाद चंद्रगुप्त द्वितीय ने ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की। पश्चिमोत्तर भारत के गण राज्यों को परास्त करने के कारण ही चंद्रगुप्त विक्रमादित्य को ‘गणारि’ (गणों का शत्रु) कहा गया है। मालवा की विजय चंद्रगुप्त के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण हुई। इससे उनके साम्राज्य की सीमाएँ समुद्र तट तक फैल गई। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने पूर्वी राज्यों तथा बंगाल के विद्रोही राजाओं को भी परास्त किया इस तरह उनका साम्राज्य पश्चिम में पंजाब से लेकर पूर्व में बंगाल तक और उत्तर में कश्मीर की दक्षिण सीमा से लेकर दक्षिण-पश्चिम में काठियावाड़ तथा गुजरात तक फैल गया। उनके शासन में शांति, सुव्यवस्था और समृद्धि थी।
चंद्रगुप्त विक्रमादित्य कला और संस्कृति के प्रति अनुराग रखते थे। उन्होंने विद्वानों को पूरा संरक्षण प्रदान किया। वह स्वयं विद्वानों का आदर करते थे। कहा जाता है कि उनके दरबार में नवरत्न थे। कालिदास उन नवरत्नों में श्रेष्ठ थे। चंद्रगुप्त का मंत्री वीरसेन स्वयं व्याकरण, न्याय और राजनीति का मर्मज्ञ था।
विक्रमादित्य स्वयं कला-प्रेमी और कलाओं के संरक्षक थे। गुप्तकाल में कला के विकास में सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान है। उनका चंद्रगुप्त द्वितीय के लिए “विक्रमादित्य”, “सिंह-विक्रम”, “परमभागवत” और “गणारि’ उपाधियों क प्रयोग किया गया है। वे एक पराक्रमी योदधा और सफल विजेता थे। वे सचमुच गुप्त साम्राज्य के निर्माता थे। दिल्ली के मेहरौली नामक स्थान पर स्थित लोहे की लाट आज भी चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की मानव उपलब्धियों की याद दिलाती है।