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राजेंद्र चोल: दक्षिण भारत के वीर योद्धा और कुशल शासक

Rajendra Chola: भारत के गौरवशाली इतिहास में चोल वंश के योगदान का जिक्र न किया जाए तो यह इतिहास के साथ न्याय नहीं होगा। चोलवंश ने भारत के यश और सम्मान को दुनिया भर में बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. चोलवंश के महान  शासको में महान शासक राजेंद्र चोल का नाम विशेष रूप से लिया जाता है. भारत के दक्षिण में चोलवंश के कई प्रमाण आज भी मिल जाते है

राजेंद्र चोल का नाम भारतीय इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों से अंकित है। वे चोल साम्राज्य के निर्माता और दक्षिण भारत के महानायक थे। उनके शासनकाल में चोल साम्राज्य ने अपनी चरम उन्नति प्राप्त की। राजेंद्र चोल एक कुशल शासक, सैन्य नायक और साम्राज्य विस्तारक के रूप में विख्यात थे। उन्होंने न केवल अपने राज्य की सीमाएं विस्तारित कीं बल्कि जनता के कल्याण और उन्नति के लिए भी कई महत्वपूर्ण कार्य किए।

राजराज प्रथम चोलवंश के शासक थे। राजेंद्र चोल इन्हीं के पुत्र थे। सन् 1014 ई0 में पिता की मृत्यु के बाद राजेंद्र चोल ने राज्य का शासन सँभाला और सन् 1044 ई० तक शासन किया। इस अवधि में उन्होंने राज्य की शक्ति बढ़ाने, सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत करने और जनता को सुख-सुविधा प्रदान करने के लिए कई महत्वपूर्ण कार्य किए।

चोल राज्य दक्षिणी भारत के प्रायद्वीप में स्थित था । यह भाग तीन ओर से समुद्र से घिरा है। राज्य में शांति और व्यवस्था बनाए रखने और आक्रमणों से उसकी रक्षा करने के लिये शक्तिशाली सेना का संगठन आवश्यक होता है। राजेंद्र चोल इस बात को भली-भाँति समझते थे। उनके पिता राजराज प्रथम ने शक्तिशाली सेना का संगठन किया था। इस सेना की सहायता से उन्होंने पांड्य और चेर जैसे पड़ोसी राज्यों और मैसूर तथा आंध्र के भागों पर आक्रमण कर वहाँ अपना प्रभाव बढ़ाया था। उन्होंने शक्तिशाली जल सेना का भी संगठन किया था और लंका तथा मालदीव पर आक्रमण कर वहाँ अपना अधिकार स्थापित किया था। राजेंद्र चोल ने अपने पिता की विजय नीति को जारी रखा।

सैनिक शक्ति बढ़ाकर राजेंद्र चोल ने विजय अभियान को आगे बढ़ाया। इसके लिये उन्हें अनेक युद्ध लड़ने पड़े। इनमें दो युद्ध बहुत ही साहसिक और वीरतापूर्ण थे। इस युद्ध में उनकी सेना समुद्र तट से होकर उड़ीसा की ओर बढ़ती गई। उड़ीसा को पार कर गंगा तक पहुँच गई और उन्होंने बंगाल के शासक पर विजय प्राप्त की। गंगा के क्षेत्र तक प्राप्त विजय की स्मृति में राजेंद्र चोल ने ‘गंगईकोंड’ उपाधि धारण की तथा ‘गंगईकोंड चोल पुरम्’ नामक नई राजधानी का निर्माण कराया। उत्तर भारत में राजेंद्र चोल की यह विजय वैसी ही थी जैसी उत्तर भारत के प्रसिद्ध सम्राट समुद्रगुप्त की थी जिन्होंने दक्षिणी भारत में अपना प्रभाव बढ़ाया था।

राजेंद्र चोल के दूसरे विजय अभियान से भारत का प्रभाव समुद्र पार देशों पर स्थापित हुआ। वह बहुत दूरदर्शी शासक थे। उनके समय में भारत का पश्चिमी और पूर्वी एशिया के देशों से व्यापार बहुत बढ़ गया। था। भारत से पश्चिमी एशिया को वस्त्र, मसाले, बहुमूल्य रत्न आदि अनेक वस्तुएँ भेजी जाती थीं। दक्षिणी-पूर्वी एशिया के विभिन्न भागों से भारतीय व्यापारी लम्बे समय से व्यापार करते आ रहे थे। यह व्यापार दक्षिण चीन तक फैल गया था।

दक्षिण भारत में चोल राज्य का विस्तार करने के साथ ही राजेंद्र चोल ने उड़ीसा तथा महाकौशल से बंगाल तक अपना अधिकार स्थापित किया। इसके अतिरिक्त उसने श्रीलंका, निकोबार द्वीप, ब्रह्मा, मलाया प्रायद्वीप, सुमात्रा आदि को अपने अधीन किया । वह महान साम्राज्य निर्माता तो थे ही इसके साथ ही वह कुशल शासक भी थे। उन्होंने राज्य की शासन-व्यवस्था का उत्तम प्रबंध किया। वह मंत्रिपरिषद् के अधिकारियों की सहायता से विशाल चोल साम्राज्य पर शासन करते थे। सुविधा के लिए शासन को कई विभागों में संगठित किया गया था और प्रत्येक विभाग में कई स्तर के अधिकारी होते थे।

राजेंद्र चोल ने कृषि की उन्नति की ओर विशेष ध्यान दिया। भूमि का सावधानी से सर्वेक्षण करा’ उसे दो भागों में बाँटा गया। एक भाग कर योग्य था, दूसरा कर के लिए अयोग्य था। उर्वरता तथा पैदा की जाने वाली फसलों के आधार पर कर निर्धारण किया गया। तालाबों से सिंचाई की सुविधाएँ बढ़ाई गई। इससे कृषि का उत्पादन बढ़ा और किसानों की दशा में सुधार हुआ।

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