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वीरता, साहस, और पराक्रम: आल्हा और ऊदल की कहानी

The Story of Alha and Udal: भारत भूमि का गौरवशाली अतीत रहा है। उत्कट राष्ट्रप्रेम हमारे देश के वीर सपूतों का आभूषण रहा है। मातृभूमि की रक्षा के लिए भारत-वीरों ने आत्म बलिदान को ही अपना मूल मंत्र माना था। हमारे देश की धरती पर समय-समय पर वीरों ने जन्म लिया, जिन्होंने अपनी वीरता, शौर्य, पराक्रम एवं साहस से भारत को ही नहीं वरन् विश्व को भी प्रभावित किया है।

वीरों की परंपरा में बुंदेलखंड क्षेत्र की वीर भूमि पर दो महान पराक्रमी एवं साहसी वीरों ने जन्म लिया, जिन्हें हम आल्हा और ऊदल के नाम से जानते हैं। वास्तव में इन दोनों महावीरों का चरित्र वीरत्व की मनोरम गाथा है, जिसमें उत्साह और गौरव की मर्यादा का जीवंत रूप दृष्टिगोचर होता है। आल्हा और ऊदल सगे भाई थे। इनके पिता का नाम देशराज सिंह एवं माता का नाम देवल था। देशराज और वत्सराज सहोदर थे। माड़वगढ़ की लड़ाई में माड़वगढ़ के राजा कलिंगराय ने छल का सहारा लिया और रात्रि में धोखे से देशराज और वत्सराज को बंदी बना लिया और उनकी नृशंस हत्या करा दी।

आल्हा और ऊदल के पिता के युद्ध में मारे जाने के बाद महोबा के चंदेल शासक परमाल के महल में उनकी रानी मल्हना द्वारा आल्हा और ऊदल का पालन-पोषण किया गया। रानी मल्हना ने इन दोनों बालकों को अपनी संतान के समान ही प्यार और स्नेह प्रदान करते हुए इनका पालन-पोषण किया। समय के साथ दोनों बालक किशोरावस्था की दहलीज पर आते-आते बरछी, बाण, कृपाण एवं घुड़सवारी की कला में दक्ष हो गए।

एक दिन ऊदल ने अपने बड़े भाई आल्हा से शिकार पर चलने की जिद की। आल्हा और ऊदल अपने अन्य साथियों के साथ शिकार पर गए। दिन भर जंगल में घूमने के बाद कोई शिकार नहीं मिला। संध्या के समय आल्हा ने ऊदल को महल लौट चलने को कहा किंतु दृढ़ निश्चयी ऊदल ने कहा कि भैया, बिना लक्ष्य भेद के वापस चलना वीरता का अपमान है। अतः मैं शिकार करके ही लौटूंगा।

आल्हा लौट आए किंतु ऊदल ने अपने घोड़े को आगे बढ़ाया और शिकार की खोज में उरई राज्य की सीमा में प्रविष्ट हो गए। उरई के वन क्षेत्र में ऊदल ने एक हिरन का शिकार किया । उरई राज्य के वनरक्षक के प्रतिरोध करने पर वीर ऊदल ने उसे कोडे से मारा और कहा कि उस हिरन का शिकार मैंने किया है, मुझे उसे ले जाने से कोई रोक नहीं सकता। वनरक्षक ने ऊदल के इस कृत्य को धृष्टता मानते हुए अपने राजा माहिल परिहार को सूचित किया। राजा माहिल ने शिकारी ऊदल को दंड देने के लिए अपने पुत्र अभय सिंह को भेजा। अभय एवं ऊदल में दद्वंद्व युद्ध हुआ। ऊदल ने अभय को पराजित कर दिया। पुत्र की पराजय से खिन्न राजा माहिल आग बबूला हो गए। उन्होंने (ऊदल के पालक महोबा के शासक चंदेल राजा परमाल से ऊदल की धृष्टता की शिकायत करते हुए व्यंग्य किया कि यदि आपका चाकर ऊदल इतना बड़ा योद्धा है तो अपने पिता के हत्यारों से बदला क्यों नहीं ले लेता ?

संयोगवश इसी समय ऊदल दरबार में आ गए और पिता की हत्या की बात उनके कानों को वेध गई। आक्रोशित ऊदल ने अपनी माता देवल के पास जाकर पिता की हत्या के विषय में जानकारी चाही। यद्यपि माता ने अपने पुत्र को युद्ध की ज्वाला से बचाने के लिए पिता की बीमारी के विषय में बताया, किंतु ऊदल अभी भी अशांत थे। क्रुद्ध होकर उन्होंने अपनी माता से पुनः पिता के हत्यारे के विषय में जानना चाहा। विवश माँ ने ऊदल को सारा वृत्तांत कह सुनाया ।
(पिता की हत्या का बदला लेने के लिए ऊदल ने अपने चाचा ताला सैयद एवं भाई आल्हा के साथ महोबा की सेना लेकर माड़वगढ़ पर चढ़ाई कर दी। माड़वगढ़ के राजा कलिंगराय को उन्होंने युद्ध में पराजित कर दिया । कलिंगराय के अति विनम्र अनुरोध पर उसे क्षमा करते हुए अपनी अधीनता स्वीकार कराई।

‘जगनिक’ कृत ‘आल्हखण्ड’ में इन दोनों वीर भाइयों की 52 लड़ाइयों की गाथा वर्णित है (दोनों भाई एक से बढ़कर एक बहादुर थे। आल्हा धीर-वीर एवं ओजस्वी थे। ऊदल उग्र एवं दृढ़ निश्चयी वीर योद्धा थे) दिल्ली नरेश पृथ्वीराज के महोबा पर आक्रमण के समय भयानक एवं विध्वंसकारी युद्ध में ऊदल वीरगति को प्राप्त हो गए। अब आल्हा का मन निराशा से भर गया इस युद्ध के बाद आल्हा का हृदय परिवर्तन हुआ और उन्होंने आदि शक्ति की भक्ति में स्वयं को समर्पित कर दिया)

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