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आसमान को जानने तथा समझने में आगे रहे हैं भारत के खगोलविद

खगोलविद् को अंग्रेजी में एस्ट्रोनॉमर (Astronomer )कहा जाता है। खगोलविद् या एस्ट्रोनॉमर (Astronomer )आकाश यानि आसमान की जानकारी रखने वाले वैज्ञानिक होते है। भारत के खगोलविद (एस्ट्रोनॉमर) हमेशा से आसमान को जानने के काम में सबसे आगे रहे हैं। यहां हम आपको भारत के सुप्रसिद्ध खगोलविदों से परिचित करा रहे हैं।

भारत के महान खगोलविद थे आर्यभट्ट

हजारों वर्षों से वैज्ञानिकों द्वारा ब्रहमांड के रहस्यों से पर्दा हटाने का प्रयास किया जा रहा है। नक्षत्रों, सूर्य, आकाशगंगाओं की उत्पत्ति, बनावट आदि विषयों पर निरंतर खोज जारी है। अधुनिक वैज्ञानिकों के इन प्रयासों पर 2500 वर्ष पूर्व भारतीय खगोलविदों ने अपने चिंतन वात ऐसे तथ्य प्रस्तुत किए हैं जिनसे लोग आज भी चकित हैं। भारतीय खगोलवियों में आर्यभट्ट, वराहमिहिर, सवाई जयसिंह आदि प्रमुख है। भारत का सबसे पहला कृत्रिम उपग्रह 10 अप्रैल, 1975 ई0 को छोड़ा गया। यह दिन भारतीय इतिहास का स्वर्णिम दिन था। इसका नाम रखा गया आर्यभट्ट। इस उपग्रह के नाम से संबंधित कहानी है एक महान गणितज्ञ और खगोल वैज्ञानिक की। जिसका नाम था आर्यभट्ट ।

बचपन से ही आर्यभट्ट आकाश में तारों को अपलक निहारते रहते थे। उन्हें लगता कि आकाश में डेरों रहस्य छिपे हैं। उनमें इन रहस्यों को जानने की इच्च्छा बलवती होती गई। प्रारंभिक शिक्षा के बाद उन्होंने शिक्षा के महान केंद्र नालंदा विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। यहाँ वे खगोल विज्ञान पर जानकारियों जुटाने में लग गए। गहन अध्ययन के बाद उन्होंने ‘आर्यभट्टीयम‘ नामक ग्रंथ की रचना संस्कृत श्लोकों में की। यह ग्रंथ खगोल विज्ञान की एक उत्कृष्ट रचना है। पुस्तक से प्रभावित होकर तत्कालीन गुप्त शासक ‘बुद्धदेव ने उन्हें नालंदा विश्वविद्यालय का प्रधान (कुलपति) बना दिया।

उनके निष्कर्षों के प्रमुख तथ्य पृथ्वी गोल है और वह अपनी धुरी पर घूमती है, जिससे दिन और रात होते हैं। चंद्रमा सूर्य के प्रकाश से चमकता है। उसका अपना प्रकाश नहीं है। सूर्यग्रहण या चंद्रग्रहण के समय राहु द्वारा सूर्य या चंद्रमा को निगल जाने की धारणा अंधविश्वास है। ग्रहण एक खगोलीय घटना है। आगे चल कर आर्यभट्ट ने एक और पुस्तक ‘आर्यभट्ट सिद्धांत‘ के नाम से लिखी। यह पुस्तक दैनिक खगोलीय गणनाओं और अनुष्ठानों (धार्मिक कृत्यों) के लिए शुभ मुहूर्त निश्चित करने के काम आती थी। आज भी पंचांग (कैलेंडर) बनाने के लिए आर्यभट्ट की खगोलीय गणनाओं का उपयोग किया जाता है। नि:संदेह आर्यभट्ट प्राचीन भारतीय विज्ञान और खगोलशास्त्र का प्रकाशवान नक्षत्र है।

वराहमिहिर भी थे बडे खगोलविद्

सम्राट विक्रमादित्य ने एक बार अपने राज ज्योतिषी से राजकुमार के भविष्य के बारे में जानना चाहा। राज ज्योतिषी ने दु:खी स्वर में भविष्यवाणी की कि अपनी उम्र के अठारहवें वर्ष में पहुँचने पर राजकुमार की मृत्यु हो जाएगी। राजा को यह बात अच्छी नहीं लगी। उन्होंने आक्रोश में राज ज्योतिषी को कुछ कटुवचन भी कह डाले, लेकिन हुआ वही। ज्योतिषी के बताए गए दिन को एक जंगली सुअर ने राजकुमार को मार दिया। राजा और रानी यह समाचार सुनकर शोक में डूब गए। उन्हें राज ज्योतिषी के साथ किए अपने व्यवहार पर बहुत पश्चाताप हुआ। राजा ने ज्योतिषी को अपने दरबार में बुलवाया और कहा-‘राज ज्योतिषी मैं हारा आप जीते। इस घटना से राज ज्योतिषी भी बहुत दुखी थे। पीड़ा भरे शब्दों में उन्होंने कहा- ‘महाराज, मैं नहीं जीता। यह तो ज्योतिष और खगोलविज्ञान की जीत है।’

इतना सुनकर राजा बोले- ज्योतिषी जी, इस घटना से मुझे विश्वास हो गया है कि आप का विज्ञान बिलकुल सच है। इस विषय में आपकी कुशलता के लिये मैं आप को मगध राज्य का सबसे बड़ा पुरस्कार ‘वराह का चिह्न प्रदान करता हूँ।” उसी समय से ज्योतिषी मिहिर को लोग ‘वराहमिहिर‘ के नाम से पुकारने लगे।

वराहमिहिर के बचपन का नाम मिहिर था। उन्हें ज्योतिष की शिक्षा अपने पिता से मिली। एक बार महान खगोल विज्ञानी और गणितज्ञ आर्यभट्ट पटना (कुसुमपुर) में कार्य कर रहे थे। उनकी ख्याति सुनकर मिहिर भी उनसे मिलने पहुँचे। वह आर्यभट्ट से इतने प्रभावित हुए कि ज्योतिष और खगोल ज्ञान को ही उन्होंने अपने जीवन का ध्येय बना लिया। मिहिर अपनी शिक्षा पूरी करके उज्जैन आ गए। यह विद्या और संस्कृति का केंद्र था। उनकी विद्वता से प्रभावित होकर गुप्त सम्राट विक्रमादित्य ने मिहिर को अपने नव रत्नों में शामिल कर लिया और उन्हें ‘राज ज्योतिषी घोषित कर दिया। वराहमिहिर वेदों के पूर्ण जानकार थे। हर चीज को आँख बंद करके स्वीकार नहीं करते थे। उनका दृष्टिकोण पूरी तरह से वैज्ञानिक था। वराहमिहिर ने पर्यावरण विज्ञान (इकोलॉजी), जल विज्ञान (हाइड्रोलॉजी) और भू-विज्ञान (जिओलॉजी) के संबंध में कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य उजागर कर आगे के लोगों को इस विषय में चिंतन को एक दिशा दी।

वराहमिहिर द्वारा की गई प्रमुख टिप्पणियाँ-

“कोई न कोई ऐसी शक्ति जरूर है जो चीजों को जमीन से चिपकाए रखती है।” (बाद में इसी कथन के आधार पर गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत की खोज की गई) “पौधे और दीमक इस बात की ओर इंगित करते हैं कि जमीन के नीचे पानी है।” अपनी पुस्तकों के बारे में वराहमिहिर का कहना था- ‘ज्योतिष विद्या एक अथाह सागर है और हर कोई इससे आसानी से पार नहीं पा सकता। मेरी पुस्तक एक सुरक्षित नाव है, जो इसे पढ़ेगा उसे यह पार ले जाएगी।’ उनका यह कथन कोरी शेखी नहीं है, बल्कि आज भी ज्योतिष के क्षेत्र में उनकी पुस्तक को प्रचरत्न समझा जाता है।

सवाई जयसिंह बने खगोलविद

ऊबड़-खाबड पहाडय़िों पर बने आमेर किले के ऊपर आकाश बड़ा सम्मोहक लग रहा था। किले की छत से एक राजकुमारी और राजा आकाश में खिले चाँद तारों को देख रहे थे। आकाश को निहारते हुए राजकुमारी ने पूछा ‘तारे और चंद्रमा यहाँ से कितनी दूर हैं ? हालाँकि राजा को खगोलशास्त्र में रुचि थी, लेकिन इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सके। राजा ने तय किया कि वे इस प्रश्न के उत्तर की खोज अवश्य करेंगे। यह उनके जीवन की परिवर्तनकारी घटना साबित हुई। बाद में सवाई जयसिंह महान खगोलविद् और गणितज्ञ के रूप में प्रसिद्ध हुए।

सवाई जयसिंह ने 13 वर्ष की उम्र में आमेर की राजगद्दी सँभाली। पहले इनका नाम जयसिंह था। उन्होंने 1701 में मराठों को युद्ध में हराकर विशालगढ़ जीत लिया था। उनकी इस विजय पर खुश होकर औरंगजेब ने उन्हें सवाई की उपाधि से सम्मानित किया। ‘सवाई’ का अर्थ है वह एक व्यक्ति जो क्षमता में दूसरों से सवाया हो। धीरे-धीरे राजा जयसिंह ने अपनी राजनीतिक स्थिति मजबूत कर ली। साथ में खगोलविद् और वास्तुकार के रूप में भी ख्याति प्राप्त की। वे खगोलविदों को दरबार में निमंत्रण देते और गोष्ठियों करवाते। उनका लक्ष्य खगोलशास्त्र का अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करना था। राजा जयसिंह ने खगोल पर पुस्तकें, संहिताएँ, सारणियों और सूची इत्यादि पुर्तगाल, अरब और यूरोप से इक_ा कीं। कई पुस्तकों का संस्कृत में अनुवाद कराया और उन्हें संस्कृत में नाम भी दिए।

कुछ अनुवादित संस्कृत पुस्तकें-

पुस्तक का नाम: -टालेमी की एलमाजेस्ट, उलुगबेग की जिजउलुगबेगी, ला हीरे की टैबलि एस्ट्रोनामिका

संस्कृत अनुवाद:- सिद्धांत सूरी कौस्तम, तुरूसुरणी, मिथ्या जीव छाया

राजा सवाई जयसिंह ने खगोलीय पर्यवेक्षणों के लिए यूरोप से दूरबीन मँगाई और फिर यहाँ दूरबीनों का निर्माण शुरू कर दिया।
दिल्ली में सन् 1724 ई0 में एक वेधशाला का निर्माण किया गया। इसे नाम दिया गया जंतर-मंतर। इसे बनाने में राजा जयसिंह ने पंडित विद्याधर भट्टाचार्या से सलाह ली। बाद में इन्होंने जयपुर शहर की डिजाइन बनाने में भी सहायता की। उन दिनों यूरोप में पीतल के छोटे उपकरणों का प्रचलन था, परंतु राजा जयसिंह ने ईंट-चूने के विशाल उपकरण बनवाए। राजा सवाई जयसिंह की वेधशाला में उन लोगों का स्वागत था जो खगोल विज्ञान पढऩा चाहते थे। जंतर-मंतर बनवाने का उद्देश्य विज्ञान को लोकप्रिय बनाना था। यह उस समय और भी महत्त्वपूर्ण था क्योंकि तब अपने देश में विज्ञान प्रयोगशालाओं का अभाव था। सवाई जयसिंह ने गहन अध्ययन व शोध के बाद खगोल विज्ञान के क्षेत्र में कई नई जानकारियों दी। जयपुर व दिल्ली की वेधशाला (जंतर-मंतर) उनका अनुपम उपहार है।

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