निराशा दुनिया का सबसे बड़ा अभिशाप है, जरूर बचें
निराशा यानि कि (disappointment) दुनिया का सबसे बड़ा अभिशाप है। निराशा से बहत दूर रहना चाहिए। हम आपको निराशा की गंभीरता, निराशा के लक्षण तथा निराशा से बचने के उपाय बता रहे हैं। निराशा हर व्यक्ति के लिए दुनिया का सबसे बड़ा अभिशाप तो है ही इसके कारण समाज और देश को भी बड़ी हानि होती है।
निराशा से खराब कुछ भी नहीं
निराशा जीवन का एक ऐसा सत्य है, जिससे इनसान जीवन में यदा-कदा रूबरू होता रहता है। निराशा के कुछ झोंके परिस्थितिजन्य होते हैं, जिनसे व्यक्ति परिस्थिति के हटते ही उबर जाता है, लेकिन निराशा के कुछ दौर मन:स्थितिजन्य होते हैं, जिनसे उबरने में समय लगता है, लेकिन जो भी हो निराशा का अंधकार भरा दौर जीवन को नरक बना देता है। जीवन का सुख-चैन, उत्साह-उमंग सब जैसे छिन जाते हैं और व्यक्ति एक दिशाहीन अँधेरी सुरंग में घुट-घुटकर जीने के लिए अभिशप्त हो जाता है।
निराशा एक अभिशाप है, मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है, जो जीवन को घुन की तरह चाटकर खोखला कर देती है। निराशा में जकड़ा हुआ मन- मस्तिष्क निषेधात्मक प्रवृत्तियों का अड्डा बन जाता है, जिससे क्षोभ, क्रोध, आवेश, हताशा जैसे अनेकों विकार उत्पन्न हो जाते हैं। बात-बात पर चिढऩा, कुढऩा और कुंठित होना ऐसे में व्यक्ति का स्वभाव बन जाता है। निराश व्यक्ति के पास कोई बैठना नहीं चाहता है और न कोई बात करना चाहता है। ऐसा व्यक्ति जहाँ भी बैठता है, वहीं संपूर्ण वातावरण विषादपूर्ण बना देता है। वस्तुत: निराशा एक तरह से छूत की बीमारी की तरह है। ऐसे व्यक्ति से हर कोई बचने की कोशिश करता है।
निराशा में व्यक्ति अपने कर्त्तव्यों को भूल बैठता है व इनके प्रति सजग-सचेष्ट नहीं रह पाता। उसका जीवन लक्ष्यविहीन, दिशाविहीन हो जाता है। उसकी गतिशीलता कुंठित हो जाती है और वह भाग्यवादी बन जाता है। पुरुषार्थ से अधिक भाग्य पर विश्वास करने लगता है। सोचता है कि जो भाग्य में लिखा होगा, वही तो होगा। इस तरह श्रम से अधिक भाग्य की अदृश्य शक्ति को अपना प्रेरक मान बैठता है। पुरुषार्थ के बल पर अपने भाग्य-निर्माण की बात को भूलकर वह एक हताश, निराश व उदासीन जीवन जीता है।
निराश व्यक्ति आत्मसमीक्षा व निरीक्षण की क्षमता भी खो बैठता है। वह अपनी गलतियों व कमियों को नहीं देख पाता, बल्कि हर असफलता, हार, हानि व दुर्योग में दूसरों को ही दोषी करार देता है व परदोषारोपण की भूल कर बैठता है। उसे दूसरों में दोष, दुर्गुण व बुराइयाँ ही दिखते हैं। उनके उज्ज्वल पहलुओं व अपनी कमियों को देखने में वह असक्षम हो जाता है। इस तरह जीवन को समग्र रूप में न देख पाना एक निराश व्यक्ति की बड़ी खामी रहती है, जो उसे जीवन के आंतरिक और बाहरी, दोहरे मोर्चों पर विफल बनाती है। ऐसे में निराशा एक ऐसी दलदल साबित होती है, जिसमें फँसे हुए व्यक्ति को दु:ख, पश्चात्ताप, घुटन व यंत्रणा के अतिरिक्त और कुछ नहीं मिलता।
इस तरह निराशा सबसे भयंकर बीमारी है, यह जिसको आक्रांत कर देती है, तो उसके जीवन को नष्ट-भ्रष्ट कर देती है और इसका कारण व्यक्ति स्वयं ही होता है। भ्रामक धारणा के आधार पर गलत निर्णयों के कारण वह अपने ही हाथों से अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारता है। हर भूल के साथ निराशा का कुहासा और गहराता जाता है और निराशा एक ऐसा भँवर साबित होती है, जो अंतत: जीवन की नैया को ही डुबो देती है। मालूम हो कि विश्व में 90 प्रतिशत आत्महत्याओं का कारण निराशा ही रहती है।
निराशा के कारण
निराशा कई कारणों से पनप सकती है। शरीर की रुग्ण अवस्था इसका एक कारण हो सकती है। शरीर में रोग के कारण मानसिक शिथिलता आ सकती है। प्राय: किसी असाध्य रोग के कारण भी यह स्थिति बनती है। अतीत की गलतियाँ, अपमान, हानि, पीड़ा का चिंतन आदि भी निराशा को निमंत्रण देते हैं। अपने विचारों को कार्यरूप में परिणत न कर पाना भी निराशा को जन्म देता है। किसी ने सही कहा है कि क्रिया में परिणत न होने वाले विचार रोग बन जाते हैं, जो आगे चलकर व्यक्ति को निराशा से घेर देते हैं। निराशा व्यक्ति की सारी शक्तियों को कुंद कर देती है।
अपने यथार्थ को स्वीकार न कर पाना निराशा का एक बड़ा कारण रहता है; जिसके कारण व्यक्ति स्वयं से व दूसरों से बढ़ी-चढ़ी एवं अव्यवहारिक अपेक्षाएँ लगाए बैठता है, जिनके पूरा न होने पर फिर निराश होता है और कुढ़ता फिरता है। जीवन में उत्साह व साहस की कमी इसी से जुड़ी हुई है, जिसके चलते व्यक्ति संघर्ष से बचता है और संघर्ष के क्षणों में सरलता से हार मान लेता है, जो मनुष्य की सबसे बड़ी भूल रहती है। इस तरह निराशा एक तरह से पलायन से उपजी स्थिति होती है, जिसके चलते व्यक्ति जीवन-संग्राम से भयभीत होकर भागा-भागा फिरता है। अपने बारे में अत्यधिक सोच भी निराशा का कारण बनती है। निराशा वहाँ पनपती है, जहाँ चिंतन स्वार्थप्रधान रहता है। ऐसे में व्यक्ति अपने बारे में बहुत अधिक सोचता है, दूसरों के बारे में सोचने की उसे फुरसत ही नहीं रहती। अपनी बढ़ी-चढ़ी इच्छाओं, कामनाओं व महत्त्वाकांक्षाओं के सामने उसे आस-पास के लोगों के दु:ख-दरद और कष्ट-अभाव आदि नहीं दिखते। यदि इन पर एक नजर डालता, तो शायद उसकी निराशा का भाव हलका हो जाता।
निराशा का मूल कारण रहता है- आत्मविश्वास की कमी। आत्मविश्वास के अभाव में व्यक्ति जीवन में वह साहसिक पहल नहीं कर पाता, जो उसे मनचाही सफलता दिला सके। कहना न होगा कि निराशा का जन्म अधिकतर असफलताओं से हुआ करता है। इस कारण व्यक्ति हिम्मत हार बैठता है। साहस के हारते ही निर्णय शक्ति समाप्त हो जाती है। मन में शंका और भय पैदा होते हैं। मन की अराजकता से शक्तियों का पतन होता है और प्रतिभा कुंद पड़ जाती है।
ईश्वर पर विश्वास का अभाव भी निराशा का कारण बनता है। निराश व्यक्ति ईश्वर पर विश्वास नहीं कर पाता, इसलिए नास्तिक बन जाता है। अपने पूर्ण प्रयास के बाद भी सफलता के मिलने या किसी अप्रत्याशित विपत्ति का पहाड़ गिरने पर नास्तिक व्यक्ति ईश्वर की न्याय व्यवस्था व उसके कर्मफल विधान को समझ नहीं पाता, उस पर विश्वास नहीं कर पाता। इस तरह ईश्वर से भिन्नता निराशा का कारण बनती है।
कुल मिलाकर निराशा जीवन का बड़ा अवरोध, उलझन व समस्या है, एक अभिशाप है, जो हमारे पुरुषार्थ को पंगु बना देती है। यह । एक तरह का पाप है, अपराध है, जो व्यक्ति के * आत्मिक उत्कर्ष व भौतिक प्रगति को निष्फल बना देती है व उसके प्रयत्न में जड़ता की जंग लगा देती है।
कैसे बचें निराशा से
अत: प्रगति के इस भयानक दुश्मन को दूर करने के लिए हमें सदैव प्रयत्नशील रहना चाहिए; क्योंकि जीवन एक साहसपूर्ण अभियान है, जिसमें आगे बढऩे के लिए हृदय में उत्साह का बल और प्रयास में निरंतरता का होना अभीष्ट रहता है।
व्यक्ति किस प्रकार उत्साही बने, उसमें सदैव आशा का संचार होता रहे, यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है। इसके लिए सबसे पहले अपना यथार्थ मूल्यांकन अभीष्ट है, फिर छोटे-छोटे कदम उठाए जाएँ, इसके र साथ छोटी-छोटी सफलताएँ विश्वास को पुष्ट करती जाएँगी। अपने पुरुषार्थ के साथ ईश्वर के विधान पर में पूरा विश्वास करें, जिसमें कहीं भी अन्याय जैसी कोई बात नहीं। इसमें देर हो सकती है, पर अंधेर नहीं। सब कुछ भगवान के विधान पर छोडक़र देखें आपकी निराशा तुरंत आशा में बदल जाएगी। इस तरह अपना श्रेष्ठतम प्रयास-पुरुषार्थ करते रहें व शेष ईश्वर पर छोड़ दें। जो भी होगा, वह श्रेष्ठतम ही होगा, इसके प्रति आश्वस्त रहें।